—तौसीफ़ गोया
मगर ये भी सच है कि वो हमारे दरम्यान कभी थे भी नहीं....(अगर एक और ज़ाविए से देखा जाए.) और ये भी सच है कि वो हमारे दरम्यान हो भी नहीं सकते थे...(जिस कार-ए-वसीअ में वो उम्र भर मुब्तिला रहे उसके तक़ाज़ों के बाइस.)
फ़ारूक़ी साहब ता-हयात ब-शक़्ल-ए-शम्स अपने ख़याल-ओ-फ़िक्र के बादलों के दरम्यान रहे..इन फ़िक्री बादलों से जब भी वो बाहर निकले..उन्होंने अदब की ज़मीं को रौशन किया... और वक़्त ब-वक़्त उसे हरारत भी अता की....शम्स यानि सूरज के मानिंद. कभी-कभी मैं ये सोचता हूं कि ये कार-ए-वसीअ दरअस्ल क्या था... और फ़ारूक़ी साहब ने इस कार-ए-वसीअ का इंतख़ाब आख़िर क्यूं किया होगा.... आज़ादी के बाद के दौर में शऊरी तौर पर जिस ज़बान को दरकिनार किए जाने की कोशिशें की जा रही थीं, उस ज़बान के पीछे अपनी पूरी ज़िंदगी होम कर देने का कोई ज़ाहिरी मक़सद नज़र नहीं आता....सिवा इसके कि उस ज़बान से आपको बे-इंतिहा मुहब्बत रही हो...या ज़बान के हवाले से जो काम आज तक किया गया है, आप उससे नाख़ुश हों....या उसमें कुछ ज़रूरी अनासिर की कमी महसूस करते हों....या आप शिद्दत से उस ज़बान की तारीख़ को न केवल तरतीब देना चाहते हों, बल्कि उसे एक नयी जमालियाती रौशनी में फिर से देखना चाहते हों. उर्दू अदब को पढ़ने और समझने के लिए एक ताज़ा एस्थेटिक्स (Aesthetic) मुहैय्या करवाना वाक़ई बड़ा काम था. शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब ब-यकवक़्त शाइर, नक़्क़ाद, तब्सिराकार, अफ़्सानानिगार, नॉवेलनिगार, मुहक़्क़िक़, मुतर्जिम, मुदीर, मुअर्रिख़ और न जाने क्या-क्या थे. निस्फ़ सदी के दामन पर फैले उनके तख़्लीकी कारनामों को किसी एक मज़्मून में समेट लेना किसी तौर भी मुमक़िन नहीं है, लेकिन सहूलत के लिए इसे मोटे तौर पर कुछ हिस्सों में बांटा जा सकता है—
1.) साठ की दहाई में लिखे गए इब्तिदाई मज़ामीन और गंज-ए-सोख़्ता (जो कि उनका शेरी मज्मुआ है.)
2.) शबख़ून के हवाले से लिखी गई तहरीरें ( जिनमें 'अफ़साने की हिमायत में' और 'शेर, ग़ैर शेर और नस्र' जैसे तारीख़ी और अपनी तरह के इकलौते मज़ामीन भी शामिल हैं.)
3.) तफ़्हीम-ए-ग़ालिब (जिसे ग़ालिब की शाइरी पर लिखी गयी अब तक की सबसे बेहतरीन किताबों में शुमार किया जाता है.)
4.) दास्ताने अमीर हम्ज़ा पर लिखी किताब.
5.) शेर-ए-शोरअंगेज़ (चार ज़िल्दों में और तक़रीबन 2500 सफ़हात में फैली उर्दू शाइरी के सबसे ज़रख़ेज़ दौर में की गई शाइरी की शरह जिसमें मीर मरकज़ी किरदार हैं.)
6.) कई चांद थे सरे आसमां (बरसों की तहक़ीक़ के बाद लिखा गया तारीख़ी नावेल, जिसका मवाज़ना किरदारों की तफ़्सीलात और बयानिए के हवाले से टॉलस्टॉय के 'वार-एंड-पीस' से किया जाना चाहिए.)
7.) दास्तानगोई (एक खोई हुई सिन्फ़ जिसे री-डिस्कवर, री-डिफ़ाइन और रि-वाइव करने का सेहरा सिर्फ़ और सिर्फ़ फ़ारूक़ी साहब के सर पर है.) अफ़्सानों और शाइरी में तो तक़रीबन हर मुसन्निफ़/शाइर के यहां उसकी ज़ाती ज़िंदगी की अक्कासी हो ही जाया करती है....और तन्क़ीदी मज़ामीन या तब्सिरों में भी कई बार लिखने वाले की ज़ाती ज़िंदगी के कुछ पहलू नज़र आ जाते हैं....लेकिन फ़ारूक़ी साहब ने ज़िंदगी भर जो कुछ भी लिक्खा, उसमें उनकी ज़ाती ज़िंदगी/ज़ाती नज़रिए का कोई सुराग़ (ग़ुबार-ए-कारवां के कुछ हिस्सों को छोड़ कर) नहीं मिलता....ये किसी भी मुसन्निफ़ के लिए एक इंतिहाई ग़ैरमामूली क़िस्म का डिसिप्लिन (Discipline) है..और इसकी कोई दूसरी मिसाल मेरी नज़र में मौजूद नहीं है. उनका मशहूर क़ौल था— “अदब को किसी भी तरह के नजरिए का पाबंद नहीं होना चाहिए”....और तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ से उनके इख़्तिलाफ़ात का बाइस भी यही था....वो अदब को किसी भी क़िस्म के नज़रियाती क़ैदख़ाने में देखना पसंद नहीं करते थे. इसी नाराज़गी और ग़ुस्से के चलते उन्होंने तरक़्क़ीपसंद तहरीक पर 'शबख़ून' मारा और एक मुतवाज़ी तहरीक अदब में क़ायम कर दी. इस मुतवाज़ी तहरीक का फ़रोग़ उर्दू अदब में बहुत तेज़ी से हुआ...और इस क़दर हुआ कि एक वक़्त में 'शबख़ून' मैग्जीन में शाए (प्रकाशित) होना अदीब होने की सनद माना जाने लगा. लेकिन सिर्फ़ इस एक वाक़ये से शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब की शख़्सियत का अंदाज़ा लगाना मेरे ख़याल से जायज़ नहीं है. वो फ़ितरी इस्त'आदाद, वस्फ़, जुनून, नाक़ाबिल-ए-तसव्वुर मेहनत और अदब के तईं ग़ैर-जानिबदाराना, बेरहमाना और ज़ालिमाना ईमानदारी (Brutal Honesty) की आमेज़िश से बने शख़्स थे.... और इस Brutal Honesty के दायरे से उन्होंने ख़ुद को भी बाहर नहीं रक्खा था. वरना ये कैसे मुमकिन था कि' अफ़्साने की हिमायत में' उन्वान से तवील मज़ामीन (विस्तृत लेख) लिखने वाला शख़्स ये ऐलान भी करे कि: “पूरी अदबी मीरास और अदब की मुख़्तलिफ़ अस्नाफ़ की इज़ाफ़ी अहमियतों का अंदाज़ा लगाते हुए मैं इस नतीजे पर पंहुचा हूं कि अफ़्साना एक मामूली सिन्फ़े सुख़न है और अलल ख़ुलूस शाइरी के सामने नहीं ठहर सकता!” या फिर 'शेर-ए-शोर अंगेज़' के पहले सफ़्हे पर “उन बुज़ुर्गों के नाम जिन के इक़्तबासात आइन्दा सफ़हात की ज़ीनत हैं.” लिखने वाला शख़्स चंद सफ़्हात के बाद ही ये जुमला भी लिख दे कि—“नासिख़ का पूरा दीवान मीर के मज़ामीन का क़ब्रिस्तान है..!” बहरहाल.. ये ख़िराज का उनका अपना अंदाज़ था. अफ़्सानों के बारे में बात करते वक़्त एक बार फ़ारूक़ी साहब ने कहा था कि “अफ़्सानानिगार को अफ़्साने में इस तरह मौजूद होना चाहिए, जैसे कायनात में ख़ुदा....माने हर जगह हो लेकिन कहीं भी नज़र न आए.” राजेंदर बेदी के मशहूर-ए-ज़माना नावेल “एक चादर मैली सी” पर यही एतराज उठाते हुए उन्होंने कहा था: 'ये नावेल एक जुमले से शुरूअ होता है'— “आज शाम सूरज की टिकिया बहुत ही लाल थी.... मैं ये जानना चाहता हूं कि ये बात कौन कह रहा है? क्या बेदी साहब ख़ुद कह रहे हैं या उनके अफ़साने का कोई किरदार कह रहा है, और अगर ख़ुद कह रहे हैं तो ज़ाहिर है उनकी मुदाख़िलत भी अफ़्साने में हो गई.... और अब उनके ज़ाती नज़रियात भी इसमें जगह-जगह दिखाई देते रहेंगे....बेहतर होता कि नावेल का कोई किरदार ये बात कहता.... बेदी साहब बहुत मोहतात अफ़्सानानिगार हैं, लेकिन मेरा सवाल पूरी तरह जायज़ है..” ऐसी और बहुत-सी मिसालें (जिनमें फ़ैज़ और फ़िराक़ पर उनके तआस्सुरात भी शुमार हैं) दी जा सकती हैं, लेकिन फ़िलवक़्त ये मिसालें ग़ैर-ज़रूरी हैं. दरअस्ल एक तवील (लंबे) अरसे तक उनकी मौजूदगी हमारे बीच बज़रिए इशाअत ही रही..और अगर मैं कहूं कि वो अपने तब्सिरों, तन्क़ीदी मज़ामीन, अफ़्सानों और मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत पर लिखी किताबों के हवाले से ही अदबी मआशरे से बात करते थे तो कुछ ग़लतबयानी न होगी. ये और बात है कि बहुत इसरार किए जाने के बाद वो कुछ जलसों या कुछ महफ़िलों में आने के लिए राज़ी हो जाते थे.... अक्सर औक़ात आ भी जाते थे.... अपने ख़ास अंदाज़ में तक़रीर भी फ़रमाते थे....लेकिन उस वक़्त भी वो एक और पेडेस्टल... एक और ऑर्बिट में होते थे...उस ऑर्बिट से सामईन (श्रोता) के ऑर्बिट तक आना उनके लिए ख़ासा तक़लीफ़देह काम होता था.... और ये तक़लीफ़ गाह-गाह उनकी तक़रीर में नुमायां भी होती रहती थी. उन्हें सीधे देखने और सुनने के गिने चुने मौक़े मुझे मयस्सर आए....लेकिन उनके मज़ामीन और उनकी किताबें पढ़ते वक़्त मेरे तसव्वुर में हमेशा एक सुर्ख़ी आमेज़ आंखों वाला रात भर का जागा हुआ कोई शख़्स रहा, जिसके चेहरे पर थकान ने अपने दाइमी नक़्श तख़्लीक कर दिए हों. ये मज़्मून लिखते वक़्त भी मुझे फ़ारूक़ी साहब का चेहरा जिस पर रात भर जागने के निशान मौजूद हैं. उनकी थकी हुई आंखें और ज़ुल्फ़िक़ार आदिल का ये शेर एक साथ याद आ रहे हैं— पलकें झपक झपक के उड़ाते हैं नींद को, सोए हुओं का क़र्ज़ अदा कर रहे हैं हम!! कभी ज़बान के हवाले से लिखे गए एक मज़मून में मैंने कहा था कि ज़बान आदमीयत का नमक है. वो नमक जिसका क़र्ज़ चुकाने के लिए ज़मीन को कभी कोई मीर, कभी कोई तुलसीदास, कभी कोई शेक्सपियर पैदा करना पड़ता है. फ़ारूक़ी साहब ने इस लिहाज से सिर्फ़ अपना ही नहीं, कइयों का क़र्ज़ अदा कर दिया है. —शुक्रिया शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब...!
(अदब की दुनिया का एक तालिब तौसीफ़ गोया 25 दिसंबर को इस दुनिया-ए-फानी से कूच करने वाले शम्स साहब को शुक्रिया के अलावा भला और क्या कह सकता है)
20-05-2022 15:37:32